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इंदौर के मूसाखेड़ी की सड़क पर सब्जी बेचने वाली बेटी बनी न्यायाधीश

मकड़ाई समाचार इंदाैर। शहर का तंग इलाका मूसाखेड़ी, जहां की तंग गलियाें से गुजरते में शहर का संभ्रांत वर्ग बचता है। इसी मूसाखेड़ी की सीताराम पार्क कालाेनी में रहने वाली एक बेटी ठेले पर सब्जी बेचकर अपने परिवार का पेट पालने की जुगत में लगी रहती थी। सब्जी ताेलते हुए निगाह में न्याय की देवी की मूर्ति थी। मगर न काेई राह दिखाने वाला था, न महंगी काेचिंग में पढ़ने की हैसियत थी। मगर जज्बा था हार न मानने का… आखिर इस बेटी की मेहनत रंग लाई और अब मूसाखेड़ी की इन्हीं तंग गलियाें में रहने वाली अंकिता नागर न्यायाधीश बन गई है।

29 साल की अंकिता जब अपने जज बनने की कहानी बताती हैं, ताे उनके चेहरे पर संघर्ष से सफलता की चमक नजर आती है। अब वह ‘माननीय’ बन चुकी हैं। अंकिता बताती हैं, मेरे माता–पिता ने सब्जी बेचकर परिवार का पेट पाला। शाम के समय जब ग्राहकों की भीड़ हाेती है ताे मैं भी उनकी मदद के लिए सब्जी के ठेले पर पहुंच जाती हूं। यही हमारी दिनचर्या है। पिता अशाेक नागर सुबह पांच बजे उठकर मंडी सब्जी लेने चले जाते थे। चाहे तेज बारिश हाे या ठंड, वे घर से निकल जाते थे। वहीं मेरी मम्मी लक्ष्मी सुबह आठ बजे उठकर घर का काम करने में जुट जाती थीं क्याेंकि बाद में उन्हें पिता के साथ सब्जी बेचने में हाथ बंटाना हाेता था। मेरे माता–पिता खासकर मम्मी की इच्छा थी कि मैं पढ़ाई करूं और आगे बढूं।

दो प्रयासों में रहीं असफल

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यह पूछने पर कि जज बनने तक का सफर कैसा रहा ताे अंकिता बताती हैं, मैं दाे प्रयास में असफल रही। सभी काे लगा कि जज नहीं बन सकूंगी, लेकिन मैं हिम्मत हारने वालाें में से नहीं हूं। आखिरकार तीसरी बार में सफलता हासिल की। 29 अप्रैल काे परिणाम आया और इसके बाद सबसे पहले मां के गले लगकर उन्हें बधाई दी और कहा मां मैं जज बन गई हूं। यह मेरी जिंदगी का सबसे खुशनुमा पल था।

ताेहफे में नहीं मिली सफलता

अंकिता काे सफलता ताेहफे में नहीं मिली। सुविधाओं में रहने वालाें काे यह अचरज लगे, लेकिन अंकिता काे सब्जी बेचने के अलावा मां के साथ घर के काम में हाथ में बंटाना हाेता था। यह आम निम्नमध्यवगीय परिवार की बेटियाें की दिनचर्या हाेती है। अंकिता भी इससे अलग नहीं थीं। वे बताती हैं, मैं सब्जी बेचने के बाद घर पर पढ़ाई करती थी। इस दाैरान कई बार मां के साथ घर के काम में हाथ भी बंटाना हाेता था। सब काम निपटाने के बाद मैं राेज करीब आठ घंटे पढ़ाई करती थी। कई बार लाइट गुल हाे जाने पर टार्च की राेशनी में पढ़ती थी क्याेंकि समय सीमित था और सपने बड़े थे। अब मैं खुश हूं कि मुझे परिश्रम का फल मिला।