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स्कूल परिसर में घूमता मिला दुर्लभ प्रजाति का कछुआ, चंबल में छोड़ा

मुरैना। गंगा नदी तंत्र में पाए जाने वाले इंडियन सॉफ्टशेल टर्टल (कछुआ) जिसका वैज्ञानिक नाम निलसोनिया गेंगेटिका है, का बसेरा शहर के सिविल लाइन थाने के पीछे स्थित तालाब में होने का दावा किया जा रहा है। ये साफ पानी का कछुआ बीते रविवार को तालाब से कुछ ही दूरी पर स्थित सरकारी स्कूल में घूमता मिला था। वन विभाग ने इसे चंबल नदी में छोड़ दिया है।

स्थानीय लोगों का कहना है कि इस तरह के और भी कछुए उन्होंने तालाब में देखे हैं। चंबल में संचालित मांसभक्षी कछुआ संरक्षण योजना में शामिल तीन प्रजातियों में से यह भी एक है। यह प्रजाति इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजरवेशन ऑफ नेचर की वल्नरेबिल (अति संवेदनशील) क्षेत्र में शामिल है।

सिविल लाइन थाने के पीछे स्थित तालाब से नाले के रास्ते होकर यह कछुआ शासकीय मिडिल स्कूल जौरा खुर्द में जा पहुंचा। अजीबो गरीब बनावट देख लोगों ने पुलिस को जानकारी दी। मौके पर पहुंचे वन विभाग के कर्मचारी यह देखकर हैरान थे कि यह कछुआ साधारण तालाबों में रहने वाला कछुआ नहीं था, बल्कि यह साफ पानी में रहने वाला दुर्लभ प्रजाति का था। लोगों ने उन्होंने बताया कि इस तरह के कछुए तालाब में और भी हैं। हालांकि वन विभाग ने इसका सर्वे नहीं किया है।

लोकल हैचरी में रखे गए थे 6 हजार अंडे

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कछुए के संरक्षण के लिए करोड़ों रुपये खर्च कर भिंड के बरही में हैचिंग सेंटर बनाया गया था। पिछले साल यहां लाए गए निलसोनिया के 438 अंडे खराब हो गए थे। जिसके चलते इस बार इस प्रजाति के करीब 6 हजार अंडों को चंबल नदी के किनारे लोकल हैचरी बनाकर रखा गया था। इनसे बच्चे निकलने शुरू भी हो गए हैं।

26 फीसदी तस्करी इसी प्रजाति की

अंतरराष्ट्रीय वन्यजीव व्यापार निगरानी नेटवर्क से जुड़े संगठन ट्रैफिक ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि भारत में पिछले 10 साल में 1 लाख 11 हजार 310 कछुओं की तस्करी हुई। इनमें से 26 फीसदी कछुए निलसोनिया गेंगेटिका थे। यह रिपोर्ट उन 14 भारतीय कछुओं की प्रजातियों के कछुओं की संख्या पर आधारित थी, जिन्हें तस्करों से बरामद किया गया था।

– चंबल में इन कछुओं का संरक्षण किया जा रहा है। यह साफ पानी के कछुए हैं, लेकिन अगर तालाब बड़े हों या कम प्रदूषित नदी हो तो वहां भी यह रह सकते हैं। अगर लोगों का दावा है कि तालाब में इस तरह के और भी कछुए हैं तो एक बार तालाब की सर्चिंग वन विभाग को करानी चाहिए। – हरिमोहन सिंह मीणा, पूर्व रिसर्च ऑफिसर कछुआ संरक्षण परियोजना चंबल