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एक ऐसी जगह जहाँ चाय, कॉफी, और जेंडर न्याय साथ चलते हैं – राकेश यादव की कलम से 

  जैसे ही मैं ‘जेंडर न्याय कलेक्टिव’ के ऑफिस में दाखिल हुआ, दरवाज़े के भीतर कदम रखते ही कुछ अलग महसूस हुआ। प्रीती —जो कलेक्टिव की एक सक्रिय सदस्य हैं —ने मुझे अंदर बुलाया। उस कमरे में कोई शोर नहीं था, पर एक हल्की सी गूंज थी—जैसे दीवारें कुछ कह रही हों। वहाँ, बांस के बने कुछ टेबल रखे थे, जिनके चारों ओर प्रीती, अनमता और राधिका बैठी थीं—कुछ पलानिंग करते हुए, कुछ आपस में खिलखिलाते हुए। एक खुली अलमारी में कुछ किताबें सजाकर रखी थीं—उन पर शीर्षक थे: ताना-बाना, नारीवादी सहभागिता, कानून में खामोशियाँ। ये किताबें महज़ पन्नों का ढेर नहीं थीं, ये समाज के उस ढाँचे को समझने और चुनौती देने का प्रयास थीं, जो लड़कियों को ‘क्यों’, ‘कब’, और ‘कहाँ’ के घेरे में बाँधता है।

दीवारों पर लगे पोस्टर महिलाओं की जगह को लेकर बोल रहे थे। एक पोस्टर में चार लड़कियाँ अपने हाथ ऊपर उठाए खड़ी थीं—उनकी मुद्रा में निडरता थी, उनके चेहरों पर बदलाव की पुकार।

एक क्षण को मन में आया—काश, अगर मैं लड़की होता, तो यह स्पेस मेरे लिए होता। मेरे मन की बात रखने, खुद को पहचानने, और इस ताने-बाने को चुनौती देने की जगह।

 

स्पेस और सहजता की परिभाषा

जब मैंने प्रीती से पूछा कि यह स्पेस कैसे बना, तो उन्होंने बिना रुके कहा, “हमने सोचा कि लड़कियों के पास वह जगह नहीं है जहाँ वे टपरी पर बैठकर चाय पी सकें, जैसे लड़के पीते हैं। समाज हर बार ताना-बाना बुन देता है, हर बार उन्हें रोक देता है।”

प्रीती के लिए ‘सहजता’ का मतलब है—खुला पन। ऐसा स्पेस जहाँ कोई जज न करे, जहाँ एक लड़की हिंसा के अनुभव को गोपनीयता के साथ साझा कर सके, और वहाँ उसे साथ, समझ और समर्थन मिल सके।

 

समाज, बाज़ार और जेंडर की जटिलताएँ

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शुरुआत में जब यह कलेक्टिव बना, तो कई पुरुषवादी सवाल उठे—’ऐसी जगह क्यों?’, ‘किसलिए चाहिए?’ लेकिन जैसे जैसे यह जगह बनी, समाज के बहुत से हिस्सों ने इसे सराहा भी। यह जगह लड़कियों को सवाल करने की ताकत दे रही थी—सवाल कि वे समाज में कैसे चलें, कैसे जिएँ, और कैसे अपनी पहचान खुद गढ़ें। आज यही स्पेस लड़कियों को बाज़ार में अपनी भूमिका को समझने और बनाने में मदद कर रहा है। यहाँ लड़कियाँ बैठकर बाज़ार को देख-समझ कर कुछ नया शुरू करने की योजना बना रही हैं। वे उपभोक्ता नहीं, निर्माता बनना चाहती हैं।

 

साझेदारी और पुरुषों की भूमिका

यह कहानी सिर्फ लड़कियों की नहीं है। कई लड़के भी इस ताने-बाने को समझ रहे हैं, और उसे बुनने में मदद कर रहे हैं। जब हम कमला समूह के साथ गाँवों में काम करते हैं, तो वे लड़के अपनी बहनों को इस स्पेस से जोड़ने के लिए आगे आ रहे हैं। सदस्यता फॉर्म भरते वक़्त वे गर्व से कहते हैं, “दीदी को जोड़िए, वो आगे आएगी। यह संकेत है एक बदलते समाज का—जहाँ जेंडर की रेखाएँ टूट रही हैं, और साझी समझ बन रही है।

 

भविष्य की राह

अनमता प्रीती राधिका और उनकी साथियो ने इस कलेक्टिव को सिर्फ एक संगठन नहीं, बल्कि एक आवाज़ मानती हैं। वे चाहती हैं कि यह जगह हरदा शहर की महिलाओं की अपनी आवाज़ बने—ऐसी आवाज़ जो न सिर्फ समस्याएँ समझे, बल्कि मिलकर उनके समाधान की ओर भी बढ़े। यह ताना-बाना अब सिर्फ एक पहल नहीं, बल्कि एक जीवंत अनुभव है—जिसमें हर धागा, हर रंग, हर आवाज़ मायने रखती है। और यह जगह हमें याद दिलाती है कि बदलाव की शुरुआत अक्सर एक कप चाय और सच्चे संवाद से होती है।

जेंडर न्याय कलेक्टिव समिति हरदा

पता- अंकुर प्रोवीजन के पास

प्रीती – 9303422035