मकड़ाई समाचार भोपाल। राजधानी में आज सफला एकादशी पूरे श्रद्भाभाव से मनाई जाएगी। शहर के बिड़ला मंदिर में भगवान लक्ष्मी नारायण की विशेष पूजा-अर्चना होगी। कोलार, भेल, संत हिरदाराम नगर सहित कई मंदिरों में इस पावन दिवस के मौके पर विशेष अनुष्ठान किए जाएंग। लोग भगवान विष्णु की पूजा-अर्चना करेंगे। ज्योतिषाचार्य पंडित जगदीश शर्मा ने बताया कि पौष माह के कृष्ण पक्ष की एकादशी को सफला एकादशी कहा जाता है। मान्यता है कि इस एकादशी का व्रत करने से सर्वत्र सफलता प्राप्त होती है। विधिपूर्वक जो व्यक्ति इस एकादशी का व्रत रखकर भगवान नारायण की पूजा करता है, उसे जीवन में कभी असफलता का सामना नहीं करना पड़ता है। पांच हजार वर्ष तप करने से जो फल प्राप्त होता है, वह इस एक एकादशी को करने से मिल जाता है। ऐसा शास्त्रों का कहा जाता है। सफला एकादशी का व्रत करने से मनुष्य के अनजाने में किए गए पापों का क्षय हो जाता है और वह जीवन में प्रगति करता जाता है। यह संयोग है कि सफला एकादशी एक ही साल में दो बार आ गई है। इससे पहले नौ जनवरी भी सफला एकादशी मनाई गई थी।
व्रत-पूजन विधान
सुबह स्नानादि से निवृत होकर भगवान विष्णु की आराधना करते हुए उन्हें पचांमृत (दही, दूध, घी, शक्कर, शहद) से स्नान करवाएं। इसके पश्चात गंगा जल से स्नान करवा कर भगवान विष्णु को कुमकुम-अक्षत लगाएं। पुष्प अर्पित करें। सफला एकादशी कथा का श्रवण या वाचन करें और दीपक और कपूर से भगवान विष्णु की आरती उतारें। पंचाक्षर मंत्र ‘ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय’का तुलसी की माला से जाप करें। शाम के समय भगवान विष्णु की आराधना में भजन-कीर्तन करें।
ऐसे शुरू हुआ सफला एकादशी व्रत
मां चामुंडा दरबार के पंडित रामजीवन दुबे ने बताया कि एक समय चंपावती नगरी में महिष्मान नाम का राजा राज्य करता था। उसके चार पुत्र थे। उन सबमें लुम्पक नाम वाला बड़ा राजपुत्र महापापी था। वह सदा परस्त्री और वेश्यागमन व दूसरे बुरे कामों में अपने पिता का धन नष्ट किया करता था। सदैव ही देवता, ब्राह्मण व वैष्णवों की निंदा किया करता था। जब राजा को लुम्पक के कुकर्मों का पता चला तो उन्होंने उसे अपने राज्य से निकाल दिया। जीवनयापन के लिए उसने चोरी करने का निश्चय किया। दिन में वह वन में रहता और रात्रि को अपने पिता की नगरी में चोरी करता तथा प्रजा को तंग करने का कुकर्म करता। उसके इस तरह के कार्यों से सारी नगरी भयभीत हो गई। वह वन में रहकर पशु आदि को मारकर खाने लगा। नागरिक और राज्य के कर्मचारी उसे पकड़ लेते किंतु राजा के भय से छोड़ देते। वह एक पुराने पीपल के वृक्ष के पास रहता था। एक बार पौष मास के कृष्ण पक्ष की दशमी को वह शीत के कारण बेसुध सा हो गया। अगले दिन सफला एकादशी को दोपहर के वक्त सूर्यदेव के ताप के प्रभाव से उसे होश आया। भूख से बेहाल लुम्भक जब तक वन से फल एकत्र कर लाया, तब तक सूर्य अस्त हो गया। तब उसने वहीं पीपल के पेड़ के समक्ष फल अर्पण करत हुए कहा- ‘इन फलों से लक्ष्मीपति भगवान विष्णु संतुष्ट हों’। इस तरह अनायास उससे एकादशी व्रत का पालन हो गया, जिसके प्रभाव से उसके सारे पाप मिट गए और उसे दिव्य रूप, राज्य, सुख-वैभव आदि सभी प्राप्त हुए।