भारतीय संस्कृति सदा से ही वीरता व शौर्य की समर्थक रही है। यदि कभी युद्ध अनिवार्य ही हो तब शत्रु के आक्रमण की प्रतीक्षा ना कर उस पर हमला कर उसका पराभव करना ही कुशल राजनीति है। अत: प्रत्येक व्यक्ति और समाज में वीरता का उदय हो इसी वजह से दशहरे का उत्सव मनाया जाता है। ऐसा विश्वास है कि इस दिन जो कार्य आरम्भ किया जाता है उसमें विजय मिलती है। भगवान श्री राम ने भी रावण से युद्ध हेतु इसी दिन प्रस्थान किया था। दशहरा का पर्व दस प्रकार के पापों- काम, क्रोध, लोभ, मोह मद, मत्सर, अहंकार, आलस्य, हिंसा और चोरी के परित्याग की सद्प्रेरणा प्रदान करता है। ज्योतिष गुरू पंडित अतुल शास्त्री के अनुसार, इस साल दशहरा 12 अक्टूबर को मनाया जाएगा। अतुल शास्त्री बता रहे हैं कि दशहरा के दिन श्रवण नक्षत्र लगना बेहद शुभ माना जाता है। इस साल श्रवण नक्षत्र का शुभारंभ 12 अक्टूबर की सुबह 05:25 बजे से हो जाएगा, जो अगले दिन यानी 13 अक्टूबर की सुबह 04:27 बजे समाप्त होगा
दशहरा की पूजा का शुभ मुहूर्त
विजयदशमी यानी दशहरा पर पूजा का शुभ मुहूर्त दोपहर 02:2 बजे से दोपहर 02:48 बजे तक रहेगा. पूजा की अवधि कुल 46 मिनट तक की रहेगी
दशहरे पर बने हैं ये शुभ योग
इस साल दशहरा पर 12 अक्टूबर को बेहद शुभ योग बन रहे हैं. इस दिन रवि योग और सर्वार्थ सिद्धि योग आपके सभी कामों को सफल बनाएंगे।12 अक्टूबर को दशहरा के दिन रवि योग पूरे दिन रहेगा, जिससे हर तरह के दोष दूर होंगे।वहीं, सुबह 6 बजकर 20 मिनट से रात 9 बजकर 8 मिनट तक सर्वार्थ सिद्धि योग रहेगा. इस योग में किए गए कामों के सफल होने की संभावना बहुत अधिक होती है. दशहरे पर शस्त्र पूजा करने का शुभ समय दोपहर में 2 बजकर 3 मिनट से दोपहर 2 बजकर 49 मिनट तक है।
ज्योतिषाचार्य पंडित अतुल शास्त्री का कहना है, ‘’हमारे भारतवर्ष में दशहरे को विजयदशमी भी कहते हैं और इसके कई कारण हैं। पहला कारण रामायण में उल्लिखित भगवान श्री राम जी का रावण पर विजय प्राप्त करना है। इसी दिन भगवान रामचंद्र चौदह वर्ष का वनवास भोगकर तथा रावण का वध कर अयोध्या पहुँचे थे। इसलिए इस पर्व को ‘विजयादशमी’ कहते हैं। दूसरी वजह है आदिशक्ति माँ भगवती, कहते हैं इस पर्व को माँ भगवती के ‘विजया’ नाम पर भी ‘विजयादशमी’ कहते हैं। तीसरी वजह है लोकाचार। ऐसा माना जाता है कि आश्विन शुक्ल दशमी को तारा उदय होने के समय ‘विजय’ नामक मुहूर्त होता है।
यह काल सर्वकार्य सिद्धिदायक होता है इसलिए इसे विजयादशमी कहते हैं। ऐसी मान्यता है कि शत्रु पर विजय पाने के लिए इसी समय प्रस्थान करना चाहिए। इस दिन श्रवण नक्षत्र का योग और भी अधिक शुभ माना गया है। युद्ध करने का प्रसंग न होने पर भी इसी काल में महत्त्वपूर्ण पदों पर पदासीन लोगों को सीमा का उल्लंघन करना चाहिए। विजयादशमी के दिन भगवान रामचंद्रजी के लंका पर चढ़ाई करने के लिए प्रस्थान करते समय शमी वृक्ष ने ही भगवान की विजय का उद्घोष किया था इसीलिए विजयकाल में शमी पूजन होता है।‘’
दशहरा अथवा विजयदशमी राम की विजय के रूप में मनाया जाए अथवा दुर्गा पूजा के रूप में, दोनों ही रूपों में यह शक्ति पूजा का पर्व है। हर्ष और उल्लास तथा विजय का पर्व है। देश के कोने-कोने में यह विभिन्न रूपों में मनाया जाता है। महाराष्ट्र में नवरात्रि के नौ दिन माँ दुर्गा को समर्पित हैं, जबकि दसवें दिन ज्ञान की देवी सरस्वती की वंदना की जाती है। इस दिन विद्यालय जाने वाले बच्चे अपनी पढ़ाई में आशीर्वाद पाने के लिए मां सरस्वती के तांत्रिक चिह्नों की पूजा करते हैं। किसी भी चीज को प्रारंभ करने के लिए खासकर विद्या आरंभ करने के लिए यह दिन काफी शुभ माना जाता है। महाराष्ट्र में इस दिन विवाह, गृह-प्रवेश एवं नया घर खरीदना काफी शुभ माना जाता है।
गुजरात में मिट्टी से बना सुशोभित रंगीन घड़ा देवी का प्रतीक माना जाता है और इसको कुंवारी लड़कियां सिर पर रखकर एक लोकप्रिय नृत्य करती हैं जिसे गरबा कहते हैं। गरबा नृत्य इस पर्व की शान है। पुरुष एवं स्त्रियां दो छोटे रंगीन डंडों को संगीत की लय पर आपस में बजाते हुए घूम घूम कर नृत्य करती हैं। इस अवसर पर भक्ति, फिल्म तथा पारंपरिक लोक-संगीत, सभी का समायोजन होता है। नवरात्रि में सोने और गहनों की खरीद को शुभ माना जाता है। पंजाब में दशहरा नवरात्रि के नौ दिन का उपवास रखकर मनाते हैं। इस दौरान यहां आगंतुकों का स्वागत पारंपरिक मिठाई और उपहारों से किया जाता है। यहां भी रावण-दहन के आयोजन होते हैं, और मैदानों में मेले लगते हैं।
बंगाल, ओडिशा और असम में यह पर्व दुर्गा पूजा के रूप में मनाया जाता है। यह बंगालियों, ओडिआ और आसाम के लोगों का सबसे महत्वपूर्ण त्योहार है। पूरे बंगाल में जहाँ यह पांच दिनों के लिए मनाया जाता है, वहीं ओडिशा और असम में यह त्यौहार ४ दिन तक चलता है। यहाँ देवी दुर्गा को भव्य सुशोभित पंडालों में विराजमान कर उनकी आराधना की जाती है। तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश एवं कर्नाटक में दशहरा नौ दिनों तक चलता है जिसमें तीन देवियां लक्ष्मी, सरस्वती और दुर्गा की पूजा करते हैं। पहले तीन दिन लक्ष्मी अर्थात धन और समृद्धि की देवी की पूजा होती है। अगले तीन दिन सरस्वती अर्थात कला और विद्या की देवी की अर्चना की जाती है और अंतिम दिन देवी दुर्गा अर्थात शक्ति की देवी की स्तुति की जाती है।
बस्तर में दशहरे के मुख्य कारण को राम की रावण पर विजय ना मानकर, लोग इसे माँ दंतेश्वरी की आराधना को समर्पित एक पर्व मानते हैं। दंतेश्वरी माता बस्तर अंचल के निवासियों की आराध्य देवी हैं, जो माँ दुर्गा का ही रूप हैं। यहां यह पर्व पूरे ७५ दिन चलता है। यहां दशहरा श्रावण मास की अमावस से आश्विन मास की शुक्ल त्रयोदशी तक चलता है। प्रथम दिन जिसे काछिन गादि कहते हैं, देवी से समारोहारंभ की अनुमति ली जाती है। देवी एक कांटों की सेज पर विराजमान होती हैं, जिसे काछिन गादि कहते हैं। यह कन्या एक अनुसूचित जाति की होती है, जिससे बस्तर के राजपरिवार के व्यक्ति अनुमति लेते हैं। यह समारोह लगभग १५वीं शताब्दी से शुरु हुआ था। इसके बाद जोगी-बिठाई होती है, इसके बाद भीतर रैनी यानी विजयदशमी और बाहर रैनी अर्थात रथ-यात्रा और अंत में मुरिया दरबार होता है। इसका समापन अश्विन शुक्ल त्रयोदशी को ओहाड़ी पर्व से होता है।
कश्मीर के अल्पसंख्यक हिन्दू भी नवरात्रि के पर्व को श्रद्धा से मनाते हैं। परिवार के सारे वयस्क सदस्य नौ दिनों तक सिर्फ पानी पीकर उपवास करते हैं। अत्यंत पुरानी परंपरा के अनुसार नौ दिनों तक लोग माता खीर भवानी के दर्शन करने के लिए जाते हैं। यह मंदिर एक झील के बीचो-बीच बना हुआ है। ऐसा माना जाता है कि देवी ने अपने भक्तों से कह रखा है कि यदि कोई अनहोनी होने वाली होगी तो सरोवर का पानी काला हो जाएगा। कहा जाता है कि इंदिरा गांधी की हत्या के ठीक एक दिन पहले और भारत पाक युद्ध के पहले यहाँ का पानी सचमुच काला हो गया था।
ज्योतिषाचार्य पंडित अतुल शास्त्री के अनुसार दशहरे का सांस्कृतिक पहलू भी है। भारत कृषि प्रधान देश है। जब किसान अपने खेत में सुनहरी फसल उगाकर अनाज रूपी संपत्ति घर लाता है तो उसके उल्लास और उमंग का पारावार नहीं रहता।
इस प्रसन्नता के अवसर पर वह भगवान की कृपा को मानता है और उसे प्रकट करने के लिए वह उसका पूजन करता है। समस्त भारतवर्ष में यह पर्व विभिन्न प्रदेशों में विभिन्न प्रकार से मनाया जाता है। विशेष रूप से महाराष्ट्र में इस अवसर पर ‘सिलंगण’ के नाम से सामाजिक महोत्सव के रूप में इसको मनाया जाता है। सायंकाल के समय पर सभी सुंदर-सुंदर नव वस्त्रों से सुसज्जित होकर शमी वृक्ष के पत्तों के रूप में ‘स्वर्ण’ लूटकर अपने घर वापस आते हैं। फिर उस स्वर्ण का परस्पर आदान-प्रदान किया जाता है।