एक थे बंशीधर, जी हाँ बंशीधर। अरे भाई वो प्रेमचंद जी वाले नमक के दरोगा नहीं, आज के टेंडर टीचर बंशीधर। प्रेमचंद के जमाने में गुरू जी होते थे फिर मास्साब हो गए अब टेंडर टीचर का जमाना है। गुरूजी विद्यादान देते थे, मास्साब कान उमेठ कर पढ़ाते थे और टेंडर टीचर पशु गणना करते हैं। वे ऐसा इसलिये करते हैं कि सरकार ऐसा कराती है। स्कूल तो दरवाजे भी चला लेंगे पर पशु कौन गिनेगा। ऐसे ही बंशीधर भी बेरोजगारी से निजात पाने के लिए एक दिन टेंड़र जमा कर आये और जनपद पंचायत ने उनका टेंडर पास कर दिया। उन दिनों प्रदेश में राजा दिशाजीत सिंह का शासन था। राजा साहब मास्टर, डॉकसाब सब को ठेके पर रख कर ठेंगा दिखाते थे। बेरोजगारी दूर करने का उनका यह सुपरहिट फार्मूला था। जो दे रहे हैं ले लो नहीं तो यह भी नहीं मिलेगा। फिर वो ऐसी परम्परा बनी की आजतक परमानेंट भर्ती के लाले पड़े हुए हैं।
बंशीधर के टेंडर टीचर बनने पर उन्होने आधाकिलो कलाकंद खरीदी, मंदिर गए और साष्टांग प्रणाम किया। मातापिता के पैर छुए तथा दोस्तों की बधाईयां स्वीकार कीं। गांवभर में यह बड़ी उपलब्धि थी। उसके गाँव वालों ने जम कर खुशी मनाई। यह गांव में ही होता है जो किसी की खुशी में पूरा गांव शामिल होता है। शहरों में तो सातवें माले के 705 नम्बर फ्लैट में क्या हो गया 704 और 706 नम्बर वाले दरवाजे को पता नहीं होता। शाम को पीपल के नीचे बैठे बुजुर्गों ने आशीर्वाद दिया और उम्मीद जताई कि परमानेंट हो ही जाओगे। कुछ दिन तो बंशीधर ने बच्चों को पढ़ाने का काम ईमानदारी से किया मगर ईमानदारी तो मुसाफिर की तरह चलायमान होती है। वह हर किसी मन में अपनी स्थाई बिल्डिंग नहीं बनाती इसी सिद्धांत के आधार पर उनका मन भी उचट गया। फिर वे बाकी के टेंडर टीचरों को पढ़ाने लगे। काम सरकारी था सो सरकार का अहसान था कि उसने कुछ काम तो दे दिया था। तनखा सरकार के हिसाब से थी। अर्थात ऊंट के मुंह में आधी सरसों। जो तनख्वाह की जगह तनखा ही थी। सो वेतन-भत्ते बढ़ाने और परमानेंट करने का ऐसा मुद्दा था जो सीधा सीने पर चोट करता था। प्रदेश में बंशीधर की ऐसी तूती बोली कि पढ़ाई-वढ़ाई तो एक तरफ वे संगठन बना कर उसकी अध्यक्षीय कुर्सी पर विराजमान हो गए। अब वो साइकिल से स्कूल जाने के बजाये जीप-कार से प्रदेश का दौरा करने लगे। रेस्टहाउस का चस्का भी खूब लगा। अध्यक्ष हैं तो संगठन के लिये कुछ तो करना पड़ेगा। तो ऐसे में करने के लिये सबसे बढ़िया है हड़ताल कर दो। परिक्षा आते ही वे सड़क पर आ जाते और हडताल कर देते। राजा दिशाजीत के लिये वो सिरदर्दी बन गये बंशीधर और उनके गंगाधर, रंगाधर। उन्ही दिनों गौरी शारदा साध्वी राजगद्दी पाने के लिये लोगों के बीच राजा दिशाजीत के खिलाफ माहौल बना रही थीं। सो जब भी बंशीधर सड़क पर अपनी तबला-पेटी के साथ उतरते गौरी शारदा उनकी पीठ थपथपाते हुए शाबाशी देने लगतीं। बंशीधर चने के झाड़ पर चढ़ ऐसी मुरली बजाते कि कान्हा ने भी कभी कदम के पेड़ पर नहीं बजाई होगी। राजा दिशाजीत की तो दिशाएं ही व्याकुल हो जाती थीं। वे तभी उतरते जब दिशाजीत के दूतों से उनकी कुछ सौदेबाजी होती। हालांकि इसका असर यह होता कि प्रदेश भर के टेंडर टीचरों की तनखा कुछ तनख्वाह तक पहुंच गई थी और उनकी उम्मीदों के दियों मे तेल आने लगा था।
उन दिनों गौरी शारदा का कुछ ऐसा जलवा चला कि राजा दिशाजीत को अपना सिंहासन गंवाना पड़ा। हालांकि इसमें साध्वी से ज्यादा दिशाजीत का अंहकार और अतिविश्वास तो था ही लेकिन सड़कों और बिजली की बद्हाली का योगदान सबसे ज्यादा था। एक बात और थी उन दिनों, राजा दिशाजीत को अपने आप पर और अपने मैनेजरों पर हिंदमहासागर से भी गहरा भरोसा था उन्हे लगता था कि उनकी भरोसे की भैंसे उन्हे तैराकर पार कर देंगी, वे एक जुमला भी छोड़ा करते थे कि लोगों का ठप्पा विकास पर नहीं मैनेजमेंट पर लगता है। और इसी रौ में वो कह बैठे चुनाव में अगर मैने साफा नहीं बाँधा तो दस साल तक तिलक भी नहीं लगाउंगा। बस इसी दम्भ से वे हिन्दमहासागर में अपना सिंहासन डुबो बैठे। साध्वी गौरी शारदा भगवे वस्त्र पहने राजतिलक करवा कर गद्दी पर विराजित हो गईं। टेंडर टीचरों को लगा बंशीधर जी अब तो सबको परमानेंट करवा देंगे। लेकिन राजनीति में ऐसा थोड़े न होता है। बंशीधर राजवीथिकाओं के चक्कर लगाते मलाई मालपुए खाते और आ जाते। काम हो न हो ऐश्वर्य तो वे भुना ही रहे थे। जीप से बोलेरो और फिर स्कार्पियों के युग में वे प्रवेश कर गए। लेकिन उनके आसरे पर आशा लगाए अभी तक साइकिल से भी मोहताज मास्साब जब कुलबुलाने लगे तो एक दिन उन्होने साध्वी जी के सिंहासन के खिलाफ ही हड़ताल करा दी। समझाने बुझाने पर कुछ आश्वासन लेकर वे उठ भी गए। साध्वी जी पर उनके झंडो-डंडों ने कुछ ऐसा चक्कर चलाया कि वे भगवा पहन कर तिरंगे की आन-बान-शान के लिए सिंहासन कुर्बान कर चलती बनीं। वे जिन काका जी को बिठा कर गई थीं लौटने पर उन्होने दो टूक कह दिया आप हिमालय में ध्यान लगाओ सिंहासन पर हम ही रहेंगे। लेकिन कुछ दिन बाद गुमनान से रुद्रशासन सिंह जी ने काका जी को किक कर सिंहासन पर कब्जा कर लिया। ऐसा कब्जा किया कि सबको फूफा बना कर वे मामा बन बैठे।
सिंहासन जाने से बौराये हुए राजा दिशाजीत बंशीधर को नई नई धुनों के साथ अपनी मुरली की तान छेड़ने को उकसाते और बंशीधर जी ऐन परिक्षा के पहले राजधानी में अपने तबला, पेटी, गिटार, सारंगी लेकर आ जाते। राजा रुद्रशासन सिंह के दूत बातचीत करते तो कोई न कोई ऐसी बात रख देते जो पूरी नहीं हो सकती थी। इस कारण कई बार राजकीय सिपाहिओं ने लाठियां भी भांजी, आँसू भी गिरवाये, पानी भी छोड़ा। सात-आठ बरस तक बंशीधर की गजब तान छिड़ती रही। दिशाजीत खुश हरसत्ता परेशान। एक मांग पूरी होती तो दूसरी नई जन्म ले लेती। प्रदेश में मास्साब और डॉक साब दोनो जब चाहे जिन्दाबाद-मुर्दाबाद करते काले झंड़े लिये सड़कों पर आ जाते। न बच्चों की पढ़ाई की किसी को चिंता न मरीजों के मरने की। बस हमारी माँगे पूरी हों-चाहे जो मजबूरी हो।
बंसीधर नमक के दरोगा को पढ़ चुके थे। वे दुनियादीरी और राजवीथिकाओं को अच्छी तरह समझ चुके थे। उन्हे किसी का नमक नहीं चुकाना था अपने हिस्से की शक्कर खानी थी। उन्हें पता था कि कॉलेज में हो-हो कराने वाले, फैक्टरियां बंद कराने वाले, किसानों को मरवाने वाले, अस्पतालों में मरीजों को न देखने वाले, दफ्तरों में तालाबंदी कराने वाले सारे अगुआ देश की संसद में हैं या प्रदेश की विधानसभा में माननीय बन कर विराजित हैं तथा लोकतांत्रिक थाली में सत्तू दिखा कर सतरस का आनंद ले रहे हैं। लोगतंत्र में……. जी हाँ लोगतंत्र में यही तो राजनीती की नर्सरी है। बंशीधर जी को भी अपने गाल और गुलाब यहां ललियाते दिखाई दे रहे थे। इस बार उन्होने कुछ कड़ी हड़ताल करवा दी। कारण साफ था चुनाव और परीक्षाएं दोनो ही नजदीक थे और यही सही समय था तपते आयरन पर ऐरन फैंकने का।
राजा रुद्रशासन सिंह राजनीति के अब हरफनमाहिर हो चुके थे। उन्होने दूत भेज कर बंशीधर को अपने राजमहल में बुलवाया और समझा दिया कि ये बेसुरी बंसी बजाना बंद करो तुम्हें हम सोने की मुरली देंगे व हमारे दरबारी भी बनाएंगे। अभी ये पुलिस वाले तुम्हे हड़काते हैं फिर एक काली कार्बाइन लेकर सैल्यूट मारते हुए तुम्हारे साथ चलेंगे। वे कार्बाइन को कंधे पर धरे तुम्हारा ब्रीफकेस उठायेगें तो तुम्हारा सीना भी चौड़ा होगा और आँखों में भी तरावट दिखेगी। बंशीधर को इसी वक्त का ही तो इंतजार था। चट हाँ कह दिया। अब काहे के टेंडर टीचर और काहे की उनकी समस्यायें। उन्हें बता दिया तुम घर जाओ घर पर विकास तुम्हारा इंतजार कर रहा है। घर से विकास को मिड डे मील चटाने स्कूल जाना वहां जाकर देश के भविष्य की सूत कातना। बेचारे सभी मास्साब-भेनजी अगली बस पकड़ कर घर चले गए और बंसीधर जी स्कार्पियों में विराजित हो नये मिशन पर।
चुनाव लड़ने के लिये रुद्रशासन सिंह जी ने अपने सभासदों के लिये सूची जारी की तो लोगों की जुबान पर एक ही नाम था। राज्य के सुदूर पश्चिम से उनके सभासद उम्मीदवार होंगे बंशीधर जी। पूर्व राजा दिशाजीत सिंह माथा ठोक कर रह गए। साध्वी गौरी शारदा अवाक। लेकिन राजा रुद्रशासन सिंह मंद मंद मुस्कुरा रहे थे। उन्होनें एक तीर से दो निशाने मारे थे वो भी सीधे दस नम्बर के पाइंट पर। बंशीधर जीत गए तो उनके पैर छुएंगे हार गए तो गए काम से होकर अपनी औकात देखेंगे। उधर बेचारे मास्साब कुलबुलाए तो उन्हे समझा दिया कि भाई अगर हम दरबार में बैठेंगे तो आपकी थाली में घी का इंतजाम करेंगे। अभी आप मेरे लोटे का घी मत फैलाओ।
नतीजा आया तो बंशीधर सर पर साफा बांधे राजदरबार के सभासद बन कर शपथ ले रहे थे। मास्साब खुश थे। उन्हें रात को चुपड़ी रोटी के सपने आते लेकिन महिने पर मिलने वाली पगार वहीं आउटर पर खड़ी पैसेंजर ट्रेन की तरह थी। परमानेंट का सिंगनल जाम हुआ पड़ा था। बंशीधर ने पाँच साल जम कर मलाई खाई। स्कूल जाने वाली साइकिल उनके पुराने घर की टान पर टंगी हुई थी जिधर वो अब जाते ही नहीं थे। जो ब्लाक शिक्षा अधिकारी और एसडीएम उन्हें हड़का-हड़का कर पुलिस का डर दिखाते थे वो ही अपनी पोस्टिंग के लिए दोनों हाथ बांधे सावधान हुए दरवाजे पर खड़े रहते थे। सफर, सफारी और इनोवा से नीचे अनकम्फर्ट लगने लगा था। पुराने साथी कभी आकर स्कूल की बात करते तो उन्हें लॉलीपाप देने की कला में वे माहिर हो चुके थे। अखबारों के मुख्यपृष्ठ की क्रांति तो छोड़ो वे अन्दर के पन्नों से भी गायब हो चुके थे। राजा रुद्रशासन सिंह ने अपनी चतुराई से एक बला को कुर्सी पर कील दिया था। यह बला अब दहाड़ने के बदले मिमयाती हुई उनके पीछे घूमती नजर आती थी।
जनता भी समझ चुकी थी सफारी के सफर और मास्साबी राजनीति को। उसे मुरली के सुराखों पर चलती उंगलियों से राग मालकौस और राग कल्याण की जगह रॉक म्युजिक और पॉप संगीत सुनाई दे रहा था। जो बंसीधर से अपेक्षित नहीं था। सो पाँच साल बाद जनता ने साफा ऐसा उतारा कि वे कहीं से निकटतम् भी नहीं रह सके। उन्हें पूर्व राजा दिशाजीत से बगावत कर मैदान में उतरे पराक्रम सिंह ने बुरी तरह पटखनी दी।
लेकिन बंशीधर ने अपने हड़ताली मिशन की मिट्टी को समझ लिया था। आज वे भले ही सिंहासन के सभासद न हों लेकिन उमर भर पेंशन के हकदार तो हो गए। मास्साबी में क्या कर लेते। लेकिन मरण उनका हुआ जो बंशीधर की मुरली को साक्षात कान्हा की मुरली मानते थे और उसकी तान पर थिरकते थे। वे सभी राजा रुद्रशासन सिंह जी के पटेल सदन से जारी आदेशों पर जनगणना से लेकर पशुगणना और सड़क से मरघट तक हुकम बजा रहे हैं। उधर बंशीधर की मुरली अब साइकिल के पास ही टान पर टंगी है, जिसमें मकड़ी ने जाले बना कर अपने कुनबे का विस्तार कर लिया है।
लेखक : चौ. मदन मोहन समर
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चौधरी मोहन गुर्जर मध्यप्रदेश के ह्र्दयस्थल हरदा के जाने माने वरिष्ठ पत्रकार है | आप सतत 15 वर्षो से पत्रकारिता के क्षेत्र में अपनी सेवायें देते आ रहे है। आपकी निष्पक्ष और निडर लेखनी को कई अवसरों पर सराहा गया है |