हरदा: भारतीय जनता पार्टी के विधि प्रकोष्ठ के अधिवक्ता सदस्यों द्वारा समलैंगिक कानून के विरोध में डिप्टी कलेक्टर को ज्ञापन सौंपा गया ।जिसमें हरदा जिला संयोजक सुदीप मिश्रा और सदस्यों में गोपाल जगन वार उपाध्यक्ष जगदीश विश्वकर्मा अधिवक्ता दिनेश प्रजापति प्रकाश पाराशर और शैलेंद्र राजपूत अधिवक्ता गण उपस्थित थे।
क्या है आवेदन में
प्रति, श्रीमान जिलाधीश महोदय हरदा
विषय- माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा शीघ्रता एवं आतुरता में, समलैंगिक व्यक्तियों के विवाह को विधि मान्यता न देने बावत् अनुरोध पत्र
आदरणीय महोदय,
भारत के माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने समलैगिंक एवं विपरीत लिंगी (Transgender) आदि व्यक्तियों के विवाह के अधिकार को विधि मान्यता देने का निर्णय लेने की तत्परता बताई है, उक्त तत्परता / आतुरता से विचलित होकर, अद्योहस्ताक्षरकर्तागण ने, निम्नलिखित महत्वूपर्ण बिन्दुओं पर यह अभ्यावेदन प्रस्तुत किया है :-
1.
भारत देश, आज, सामाजिक, आर्थिक क्षेत्रों की अनेक चुनौतियों का सामना कर रहा है, तब विषयांतर्गत विषय को माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सुनने एवं निर्णीत करने की कोई गंभीर आवश्यकता नहीं है। देश के नागरिकों की बुनियादी समस्याओं जैसे गरीबी उन्मूलन, निःशुल्क शिक्षा का क्रियान्वयन, प्रदूषण मुक्त पर्यावरण का अधिकार, जनसंख्या नियंत्रण की समस्या, देश की पूरी आबादी को प्रभावित कर रही है. उक्त गंभीर समस्याओं के संबंध में भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा न तो कोई तत्परता दिखाई गयी है ना ही कोई न्यायिक सक्रियता दिखाई है।
2.
भारत विभिन्न धर्मो, जातियों, उप जातियों का देश है। इसमें शताब्दियों से केवल जैविक पुरूष एवं जैविक महिला के मध्य, विवाह को मान्यता दी है। विवाह की संस्था न केवल दो विषम लैगिंको का मिलन है, बल्कि मानव जाति की उन्नति भी है। शब्द “विवाह” को विभिन्न नियमों, अधिनियमों, लेखों एवं लिपियों में परिभाषित किया गया है। सभी धर्मों में केवल विपरीत लिंग के दो व्यक्तियों के विवाह का उल्लेख है। विवाह को दो अलग लैंगिकों के पवित्र मिलन के रूप में, मान्यता देते हुये, भारत का समाज, विकसित हुआ है, पाश्चात्य देशों में लोकप्रिय, दो पक्षों के मध्य, अनुबंध या सहमति को मान्यता नहीं दी है।
3.
भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नालसा (2014), नवतेज जौहर (2018) के मामलों में समलैंगिकों एवं विपरीत लिंगी (Transgender) के अधिकारों को पूर्व से ही संरक्षित किया है। जिससे यह समुदाय, पूरी तरह से उत्पीड़ित या असमान नहीं है, जैसा कि उनके द्वारा बताया जा रहा है। इसके विपरीत भारत की अन्य पिछड़ी जातियां, आज भी जातिगत आधार पर शोषित एवं वंचित हो रही है, जो आज भी अपने अधिकारों के लिये, माननीय सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को अपने पक्ष में निर्णित होने का इंतजार कर रही है। ऐसी स्थिति में समान लैगिकों के विवाह को विधि मान्यता दिये जाने की मांग, उनका मौलिक अधिकार न होकर, वैधानिक अधिकार हो सकता है, जो केवल भारत की संसद द्वारा कानून बनाकर ही संरक्षित किया जा सकता है।
4.
विधायिका ने पहले ही उपरोक्त निर्णयों के आधार पर कार्यवाही कर ट्रांसजेंडर व्यक्तियों (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम 2019 को अधिनियमित किया है और इसलिये इस समुदाय की यह आशंका या कथन, कि उनके साथ भेदभाव किया जा रहा है और उन्हें मूल अधिकार प्रदान नहीं किये गये हैं, सर्वथा गलत है। ऐसे हर एक व्यक्ति के अधिकार की देखभाल / संरक्षण, विधायिका द्वारा किया जा रहा है। उक्त अधिनियम के अधिनियमित हो जाने पर उक्त कथित समुदाय के व्यक्तियों को यह दावा / मांग करने का मौलिक अधिकार नहीं है कि उनके विवाह को विशेष विवाह अधिनियम 1954 के अंतर्गत, पंजीकृत एवं मान्यता प्राप्त की जावे।
5.
यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि इस समुदाय विशेष द्वारा विशेष विवाह अधिनियम 1954 के अंतर्गत, अधिकार बनाने की मांग की जा रही है जबकि उक्त अधिनियम, मात्र जैविक पुरूष और महिला पर लागू होता है, इसलिये किसी भी प्रावधान को हटाने / बढ़ाने का कोई भी प्रयास, अथवा उक्त अधिनियम (प्रावधान) को नये तरीके से परिभाषित करना, उसे नये स्वरूप में लिखना, निश्चित एवं स्पष्ट रूप से, विधायिका से कानून बनाने की शक्ति ले लेना माना जावेगा।