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आलेख : स्वराज के प्रणेता लोकमान्य तिलक – अमित शाह

अमर स्वतंत्रता सेनानी और महान विचारक लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने सौ साल पहले एक अगस्त 1920 को इस लोक से परलोक की ओर प्रयाण किया था, परंतु उनके व्यक्तित्व, विचार और उनके द्वारा स्थापित परंपराओं की प्रासंगिकता आज भी पहले जितनी ही है। उनका व्यक्तित्व और कृतित्व आज के लिए एक अमूल्य धरोहर है, जिसमें व्यक्ति, समाज और राष्ट्र, तीनों का दिशादर्शन करने का कालजयी सामर्थ्य है। तिलकजी बहुआयामी क्षमता के धनी थे। शिक्षक, अधिवक्ता, पत्रकार, समाज सुधारक, चिंतक, दार्शनिक, प्रखर वक्ता, नेता, स्वतंत्रता सेनानी जैसे विभिन्न् रूपों और उनके दायित्वों का उन्होंने सम्यक ढंग से निर्वहन किया। तिलकजी की विलक्षण क्षमता और व्यापक व्यक्तित्व को समझना इतना आसान नहीं है। उनके व्यक्तित्व में एक ऐसा तेज, एक ऐसी ऊर्जा थी, जिससे आम और खास- सभी लोग सहज ही आकर्षित और प्रेरित हो जाते थे। तिलकजी की इस ऊर्जा से महात्मा गांधी को स्वदेशी का मंत्र मिला तो मदन मोहन मालवीय काशी हिंदू विश्वविद्यालय के निर्माण में जुट गए और सावरकर एवं अरविंदो घोष क्रांति के मार्ग पर निकल पड़े।
राष्ट्र की स्वाधीनता को लेकर तिलकजी का स्पष्ट मत था। वह कांग्रेस में पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने संपूर्ण स्वराज की मांग करते हुए कहा था, ‘स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर ही रहूंगा। इस एक वाक्य ने स्वतंत्रता आंदोलन को लोक आंदोलन में परिवर्तित करने में बड़ी भूमिका निभाई। उनका मानना था कि भारतीयों को अपनी संस्कृति के गौरव से परिचित कराने पर ही उनमें आत्म-गौरव एवं राष्ट्रीयता की भावना पैदा की जा सकती है। उन्होंने अपने समाचार पत्र ‘मराठा में लिखा था, सच्चा राष्ट्रवाद पुरानी नींव के आधार पर ही निर्मित हो सकता है।
मुझे लगता है कि 1951 में जब भारतीय जनसंघ की स्थापना हुई तो उसके मूल में कहीं न कहीं तिलकजी का यह दर्शन समाहित था, क्योंकि जनसंघ ने भारत के विकास का जो खाका बनाया, वह पाश्चात्य मॉडल पर आधारित न होकर भारतीय दर्शन, संस्कृति और ज्ञान पर आधारित था। तिलकजी भारतीय सांस्कृतिक जागरण के आधार पर देशवासियों में राष्ट्रप्रेम उत्पन्न् करना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने अनेक प्रकार की पहल की, जिनमें सार्वजनिक गणपति उत्सव और शिवाजी महाराज जयंती प्रमुख हैं। ये उत्सव आज बड़ी परंपरा बन चुके हैं। सांस्कृतिक जागरण के इन प्रयासों से तिलकजी ने राष्ट्रीय आंदोलन, जो मात्र कांग्रेस के कुछ उदारवादियों और उनके अनुयायियों तक सीमित था, को सामान्य जन तक पहुंचाने का कठिन किंतु महत्वपूर्ण काम किया। अगर स्वाधीनता संग्राम को भारतीय बनाने का किसी ने काम किया तो वह तिलकजी ने किया। वह सदैव जनता से जुड़े रहे और इसी क्रम में स्वत: ही उनके नाम के साथ ‘लोकमान्य जैसी उपाधि जुड़ गई। अपनी राष्ट्रवादी पत्रकारिता से भी तिलकजी स्वाधीनता की अलख जगाते रहे। अंग्रेजी में ‘मराठा और मराठी में ‘केसरी नामक समाचार पत्रों के माध्यम से जब उनके संपादकीय लेख लोगों तक पहुंचते तो उनका एक-एक शब्द अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध विद्रोह की चिंगारी भरने और स्वाधीनता की ज्वाला को प्रबल करने का काम करता। अपने प्रखर लेखों में तिलकजी ब्रिटिश शासन की क्रूरता और भारतीय संस्कृति के प्रति उनकी हीनभावना की कड़ी आलोचना करते थे। उनकी कलम से ब्रिटिश हुकूमत किस कदर भयभीत थी, इसका अनुमान इससे होता है कि केसरी में छपने वाले लेखों की वजह से उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा।
लोकमान्य तिलक भारतीय आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक विषयों की गहरी जानकारी और समझ रखते थे। जब ब्रिटिश हुकूमत ने उन पर राजद्रोह का मुकदमा करके उन्हें बर्मा की मांडले जेल में भेज दिया तो वहां भी उनकी सांस्कृतिक चेतना और सक्रियता पर विराम नहीं लगा। जेल में उनके भीतर का उत्कट विद्वान जाग उठा और हमें श्रीमद्भागवद्गीता के रहस्य खोलने वाली ‘गीता-रहस्य नामक अनुपम कृति प्राप्त हुई, जिसके विषय में राष्ट्रकवि दिनकर ने कहा था, ‘श्रीमद्भागवद्गीता एक बार तो कर्मयोगी भगवान श्रीकृष्ण के मुख से कही गई और दूसरी बार उसका सच्चा आख्यान तिलक ने किया।

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सामाजिक सुधारों को लेकर तिलकजी का स्पष्ट मत था कि ये तभी संभव हैं, जब नेता इन्हें अपने जीवन में लागू करें। अपनी दोनों पुत्रियों का विवाह उनके सोलह वर्ष का हो जाने के बाद करके उन्होंने इस कथन को अपने जीवन में उतारा। छुआछूत और भेदभाव के प्रति भी वह कड़ा विरोध रखते थे। 25 मार्च, 1918 को मुंबई में दलित जाति के सम्मेलन में उन्होंने कहा था कि यदि ईश्वर अस्पृश्यता को सहन करे तो मैं उसे ईश्वर के रूप में सहन नहीं करूंगा। तब ऐसी बात कहना बड़े साहस का काम था। विभिन्न् अवसरों पर दलित जाति के लोगों के साथ भोजन करके उन्होंने अपने छुआछूत विरोधी विचारों को सिद्ध भी किया। तिलकजी न सिर्फ राजनीति-शास्त्र के ज्ञाता थे, बल्कि रणनीति में भी सिद्धहस्त थे। मुझे यहां पर वीर सावरकर जी द्वारा तिलकजी के जन्म जयंती समारोह में कहे गए ये शब्द याद आ रहे हैं, ‘जहां तक कानून का, निर्बंध का दायरा लंबा जा सके, वहां तक लड़ाई को लड़ते रहना, अगर निर्बंध थोड़े बढ़ गए तो थोड़ा पीछे आना, मगर बाहर निकलते वक्त उसी निर्बंध को तोड़ देना।
आज आत्मनिर्भर भारत की बात हो रही है। तिलकजी ने भी स्वदेशी और आत्मनिर्भरता पर बल दिया था। उन्होंने शिक्षा, मीडिया, लघु उद्योग, कपड़ा मिल जैसे क्षेत्र में अनेक प्रकार के उद्योग आरंभ किए और उनका संचालन भी किया। देसी उद्योगों को पूंजी मुहैया कराने हेतु उन्होंने ‘पैसा फंड नामक एक कोष शुरू किया और युवाओं का आह्वान किया कि वे एक दिन का वेतन उसमें दें। इन सब गतिविधियों के माध्यम से उनका यही संदेश था कि अन्य देशों पर भारत की निर्भरता कम हो। आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में देश आत्मनिर्भर होने की दिशा में अग्रसर है। मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम बनाने पर तिलकजी बल देते थे। आज जब 34 साल बाद मोदी सरकार नई शिक्षा नीति लाई है तो उसमें मातृभाषा में शिक्षा को लेकर व्यवस्था की गई है।
मरण और स्मरण में केवल आधे ‘स का अंतर होता है, लेकिन इस आधे अक्षर के लिए पूरे जीवन सिद्धांतों पर चलना पड़ता है, तब जाकर लोग मरण के सौ साल बाद आपको स्मरण करते हैं। तिलकजी का व्यक्तित्व ऐसा ही था जो सौ साल बाद भी लोगों के मन-मस्तिष्क में अपनी छाप छोड़े हुए है और आने वाले अनेक वर्षों तक इसका प्रभाव बना रहेगा।
(लेखक केंद्रीय गृहमंत्री हैं)