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हरदा सिराली अब गर्मी से प्रभावित नहीं होगा गेहूं का उत्पादन, वैज्ञानिकों ने विकसित की गेंहू की नई किस्म

ब्रजेश पाटिल की रिपोर्ट

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हरदा जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणाम गेहूं की फसल को विभिन्न तरह से प्रभावित कर रहे हैं। जहां एक तरफ सिकुड़ती हुई सर्दियां और फरवरी मार्च में गर्म हवाएं और तापमान देश के किसानों को चिंतित कर देते हैं वहीं अचानक से मौसम परिवर्तन पकती हुई फसल को गिरा कर नुकसान पहुंचा देती है। इन्हीं समस्याओं को दूर करने के लिए भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिक निरंतर शोधरत हैं और ने गेहूं की नई किस्मों का विकास जलवायु अनुरूप कर रहे हैं। मध्य प्रदेश खासकर हरदा जिला देश में उच्चतम क्वालिटी का गेहूं और अन्य फसल उत्पाद पैदा करने के लिए जाना जाता है। यहां के प्रगतिशील किसान भी वैज्ञानिकों द्वारा विकसित किस्मों और अन्य जानकारीयों से लाभान्वित हो रहे हैं। साथ ही किसान के द्वारा झेली जा उत्पादन संबंधी समस्याओं से वैज्ञानिकों को अवगत करा रहे हैं। पूसा संस्थान द्वारा विकसित किस्मों को किसानों तक पहुंचाने में समिति भी अपना यथासंभव योगदान दे रही है। इस वर्ष कुछ किस्मों का डिमॉन्सट्रेशन समिति द्वारा वहीं हरदा जिले के ग्राम सोमगांव कलां में कृषक मित्र बीज उत्पादन केंद्र द्वारा किया गया है। जिनके निरीक्षण हेतु पूसा संस्थान दिल्ली के वरिष्ठ वैज्ञानिक (गेहूं प्रजनन) कृषि सलाहकार डांक्टर नरेश कुमार बैंसला पहुंचे जिन्होंने गांव की फसल और विभिन्न संसाधनों का भ्रमण और संज्ञान लेने के उपरांत किसानों को जानकारी देते हुए बताया कि पूसा संस्थान द्वारा विकसित किस्में इस क्षेत्र के लिए उपयोगी हो सकती हैं। साथ ही उन्होंने संसाधनो का समुचित उपयोग करने के लिए गेहूं की किस्मों का सीड रेट किस्मों के चयन के अनुरूप करने की सलाह दी। जहां हमारे किसान भाई पुरानी किस्मों का 80 से 90 किलोग्राम बीज प्रति एकड़ डालते हैं पूसा संस्थान की नई किस्में 40 किलोग्राम प्रति एकड़ से बुवाई कर सकते हैं। उन्होंने बताया की गेहूं की सीधी बिजाई बगैर जुताई और पिछली फसल के अवशेषों को समाहित करते हुए (कंजरवेशन खेती)करना और अगेती बुवाई किसानों के लिए लाभकारी रहेगी।इससे न केवल पानी की बचत होगी बल्कि टर्मिनल हीट के प्रकोप और फसल गिरने की समस्या भी काफी हद तक कम हो सकते हैं। डा बैंसला ने बताया की भविष्य में नई किस्मों के तने और जड़े भी काफी मजबूत होने के साथ साथ दानों की गुणवत्ता उनके शोध की दिशा है। जिससे गेहूं का हवाओं में झुकाव कम रहेगा। कृषि वैज्ञानिक व सलाहकार डॉक्टर नरेश बैंसला का कहना है कि संस्थान द्वारा विकसित हमारे फसल चक्र (क्रॉपिंग सिस्टम) के लिए अनुरूप हैं। कुछ नई किस्में अवधि के अनुरूप ढलने में भी सक्षम हैं। इन किस्मों के इस सीजन के परिणामों से यह भी सपष्ट हो सकेगा की हमारे क्षेत्र में गेहूं उत्पादन और संसाधन उपयोगिता में कितने सुधार की संभावना है। ग्राम सोमगांव कलां के कृषक मित्र बीज उत्पादन सह समिति के संचालक यशपाल चौधरी ने बताया दिनांक 20 नवम्बर को गेहूं की बोनी की गई थी, जिससे नई किस्म की बालियों में दाना भराने (फुलने) की अवस्था में पहुंच गई हैं, और पूसा की किस्मों पर आभासी तौर पर काफी कम असर दिख रहा है जबकि अन्य पुरानी वैरायटीयो में बालियां तेज धूप व तापमान के कारण आधी बालियां सुखने लगी है। हालांकि कौन सी किस्में वास्तव में इस कठिन जलवायु में विजेता साबित होती है यह तो फसल काटने बाद ही पता चलेगा। यशपाल चौधरी भी डा बैंसला की बताई गई बातों से काफी हद तक सहमत होते हुए मानते हैं की अगर बुआई अक्टूबर माह में हो जाए तो इसकी कटाई मार्च में हो सकती हैं।
कृषि जानकारों और यहां की किसानों की मानें तो इस वर्ष फरवरी महीने में तापमान में वृद्धि से फसल के उत्पादन के लिए चिंता का विषय है और आगे भी रहेगा। हमने जब किसानों से चर्चा की हमे कृषक श्री किशन एवं राहुल पाटिल ग्राम तीनसार वालों ने जानकारी देते हुए बताया कि पूसा संस्थान द्वारा विकसित नई किस्में किसानों के लिए अधिक उत्पादन में वरदान साबित हो सकती है, किसानों को यह बीज कृषक मित्र बीज उत्पादन सह. समिति द्वारा अनुबंधित किस्मों का बीज किसानों को उपलब्ध कराया गया है और भविष्य में नई किस्मों के लिए पूसा संस्थान से अनुबंध भी करेंगे और साथ ही संसाधन सुरक्षा तकनीकों को भी समझेंगे और अपनाएंगे।
वहीं कुछ किसानों का कहना है कि इस बार फरवरी में गर्मी तेज होने से सामान्य गेहूं की वैरायटीयो को भी काफी नुकसान हुआ है,
फरवरी में रिकॉर्ड तोड़ गर्मी का आना आम लोगों के साथ-साथ किसानों के लिए भी काफी नुकसानदायक साबित हो रहा है। ऐसे में वैज्ञानिकों की तकनीकी एवं सलाह भविष्य के लिए उम्मीद की किरण बनकर आई है। पिछले साल मार्च के तापमान में वृद्धि से किसानों की फसल उस समय झुलस गई थी जब फसल दाने भराव यानी स्टार्च और प्रोटीन जमा कर रहे थे। ऐसे में वैज्ञानिक दिशा प्राकृतिक संसाधनों के उचित उपयोग की बात अवशयांभवी ही है।