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विवादित बयान से संविधान का अपमान ?

डॉ. अजय कुमार मिश्रा

देश में चल रहें अलग-अलग बयानों से कई विवाद अब सामने है। समाजवादी पार्टी के नेता स्वामी प्रसाद मौर्य का रामचरित मानस पर दिया गया। बयान जहाँ जबरजस्त विवादों में है। और उन पर F.I.R. भी दर्ज किया गया है, वही राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत का जातिगत व्यवस्था के लिए ब्राम्हणों को जिम्मेदार बताना, अब विवादों के घेरे में आ गया है। एक तरफ जहाँ समर्थक सफाई दे रहे है, वही विपक्ष के साथ-साथ कई संगठन और लोग दिए गए बयान पर तीखी प्रतिक्रिया दे रहें है। ऐसे में आम जन मानस के मन में इन बयानों को लेकर कई प्रश्नों का आना स्वाभाविक है।

एक तरफ जहाँ आम आदमी के कई जमीनी मुद्दे है जो चीख-चीख कर इन राजनैतिक ज्ञानियों से आग्रह कर रहें है की उनपर बयान दे, वही दूसरी तरफ
आम लोगों को आपस में बाटने वाले राजनीतिक बयान अब सुर्खियाँ बटोरने लगे है। जिन्हें हम समाज का नेतृत्वकर्ता मानतें है यदि उनकी सोच में दशकों पश्चात् परिवर्तन नहीं हुआ तो फिर करोड़ों आम नागरिकों की सोच में परिवर्तन की उम्मीद कैसे की जा सकती है ? राष्ट्रहित की आड़ में कई ऐसे बड़े लोग है जो राजनीतिक चासनी में हमेशा डूबे रहना चाह रहें है। जिनका सरल और लागत रहित तरीका विवादस्पद बयान है। क्योंकि इन बयानों से उन्हें वोट बैंक बनता दिखाई देता है। इसीलिए जिन्हें हम सामाजिक आदर्श के रूप में देखतें है वो भी विवादस्पद बयान बाजी करने से चुकते नहीं है। आखिर सत्ता रहेगी तो सहूलियत भी रहेगी अन्यथा न दरबार लगेगा और न ही सहूलियत प्राप्त होगी।

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चलिए एक बार मोहन भागवत के बयान को पढ़ते है – “हमारी समाज के प्रति भी ज़िम्मेदारी है। जब हर काम समाज के लिए है तो कोई ऊंचा, कोई नीचा या कोई अलग कैसे हो गया ? भगवान ने हमेशा बोला है कि मेरे लिए सभी एक है उनमें कोई जाति या वर्ण नहीं है, लेकिन पंडितों ने श्रेणी बनाई, वो गलत था। इस बयान का आप बारीकी से मूल्यांकन करेगे तो आपको राजनैतिक आकांक्षा के साथ-साथ विशेष बड़े तबकों में पैठ बनाने की होड़ जरुर दिखेगी। जहाँ बयान देने वाले स्थान बनाने के लिए दशकों से बेचैन है। इसका जीवंत उदहारण आप स्वयं आकलन कर सकतें है। कई राज्यों में सत्ता में आने के पश्चात् सत्ता से बाहर होने का खुला दर्द साफ़ दिखाई देता है। ह्रदय और कर्ण को प्रिय लगने वाले बयान इतने नकारात्मक रूप से इतने प्रभावशाली होतें है की लोग सरकार और सत्ता से जरुरी प्रश्न करना भी भूल जातें है। एक सीधा सा प्रश्न है। देश संविधान से चल रहा है कई ब्राम्हण
चला रहें है ? देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है। आजादी मिले 75 वर्षो से अधिक का समय हो गया फिर भी हम कभी रामचरित मानस, कभी मदिर-मस्जिद, कभी हिन्दू-मुस्लिम और कभी ब्राम्हण, छत्रिय, शुद्र में उलझे हुए है। यदि देश संविधान से चलता है फिर इस तरह के बयानों का औचित्य क्या है ? विचार करिए तो इसके पीछे सिर्फ राजनैतिक लालसा और एक तबके में पैठ बनाने की मजबूत इच्छा शक्ति ही दिखेगी। देश का संविधान – नागरिकों को जाति, रंग, नस्ल, लिंग, धर्म या भाषा के आधार पर कोई भेदभाव किए बिना सभी को बराबरी का दर्जा और अवसर देता है।

क्या यह किसी भी देश के लिए पर्याप्त नहीं है ? यदि 75 वर्षो से अधिक समय व्यतीत हो जाने के पश्चात आज हम इस बात पर बयान दे रहें है की जाति
व्यवस्था ब्राम्हणों की देन है तो क्या देश के संविधान का अपमान नहीं है ? क्या इन बयानों से संविधान का सर्वोपरि होने पर प्रश्न खड़ा नहीं होता ? अब
राष्ट्रहित और देश की बात करने वाले लोग इतने शांत क्यों है ?
देश का संविधान सर्वोपरि है देश के सभी नागरिकों को समानता का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, शोषण के विरुद्ध अधिकार, धार्मिक स्वतंत्रता का
अधिकार, सांस्कृतिक तथा शिक्षा सम्बंधित अधिकार, संवैधानिक उपचारों का

अधिकार बिना किसी भेद – भाव के देता है। पर दुखद यह है की सबसे अधिक राजनैतिक प्रहार इन्ही अधिकारों पर वर्षो से लगातार जारी है। ऐसे में यदि किस एक जाति समुदाय को सामाजिक विघटन के लिए जिम्मेदार बनाया जाए तो प्रश्न उस जाति या समुदाय पर नहीं बल्कि देश को चलाने के लिए सर्वोपरि देश के संविधान पर भी बड़ा प्रश्न चिन्ह है। कोई भी एक समुदाय और जाति सामाजिक परिवर्तन कभी नहीं कर सकता, जबकि कुल आबादी का बड़ा हिस्सा किसी परिवर्तन के लिए एक साथ सामने न आये। देश में अब तक संविधान में ही कई बड़े संशोधन सिर्फ इस लिए हो सकें की जनता बिना किसी भेद-भाव के बड़ी संख्या में सड़कों पर उतरी जिसका उद्देश्य स्पष्ट और सामाजिक हित में रहा है। देश में ब्राम्हणों की आबादी महज 4% ही है जबकि अन्य की संख्या 96% है। कई मुद्दों पर ब्राम्हणों और धार्मिक ग्रंथो को लगातार न केवल विवाद में खीचा जाता है बल्कि द्वेष भी रखा जाता है। पर जमीनी रूप से आज़ादी के पश्चात् आज भी जातिगत व्यवस्था का मकड़ जाल फैला हुआ है तो उसके पीछे सिर्फ और सिर्फ राजनैतिक कारण है। कोई एक दो नहीं सभी राजनैतिक पार्टिया जातिगत राजनीति के इर्द-गिर्द अपना भविष्य बनाने में लगी है। समय- समय पर सामने आने वाले बयान और जातिगत कार्य सार्वजानिक रूप से करके राजनैतिक पार्टी देश या आम आदमी के विकास के बजाय अपना स्वयं का हित साध रही है। बिगत के कुछ वर्षो में जमीनी आवश्यकता के अनुरूप सरकारों द्वारा कार्य करने के बजाय वोट बैंक को केंद्र में रखकर ही कार्य किया जा रहा है।

शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार पूर्ण रूप से सरकार ने निजी क्षेत्रों के हाथ में सौप दिया है। यदि आपके पास पैसा है तो निजी क्षेत्र से आप शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार आसानी से मन चाहा प्राप्त कर सकते है पर दुर्भाग्य यह है की आम आदमी के इस देश में हमें सिर्फ ख्वाब दिखाकर राजनैतिक पार्टिया अपना उल्लू सीधा करती है। समय – समय पर इस तरह के राजनैतिक बयान आग में घी डालने का काम भी कर रहें है। अब समय आ गया है की समाज को बांटने वालें बयानों को देने वाले लोगों से आम जनता अपनी जमीनी मुद्दों को लेकर सीधा प्रश्न करें और उनकी
जबाबदेही तय करें। इस तरह के बयानों को संविधान के अपमान की श्रेणी में लाया जाए, अन्यथा की स्थिति में घर में बैठ कर, मोबाइल और कंप्यूटर के
जरिये हम किसी के बयान का समर्थन और निंदा तो कर सकतें है पर जनता के जमीनी मुद्दों का समाधान कभी प्राप्त नहीं कर सकतें। कौन सी जाति, कौन
सा धर्म, सामाजिक विघटन या अंतर के लिए, कितना अधिक जिम्मेदार है, उससे कही अधिक जरुरी यह है की संविधान के निति और नियमों का 75
वर्षो पश्चात् भी सफल और प्रभावशाली क्रियान्यवन क्यों नहीं किया गया ? इस बात पर बड़ी बहस होनी चाहिए और राजनैतिक लाभ के लिए चल रहे
चक्रव्यूह की इस संरचना रचने वाले सभी राजनैतिक पार्टियों को न केवल जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए बल्कि इसे तोड़ कर एकता का परिचय भी
देना चाहिये। सभी जाति और समुदाय देश की धुरी है जिनके आपस में जुड़े रहने पर देश का विकास और टूटने पर उनके साथ-साथ देश का भी विनाश
होना तय है।