चीख, चिल्लाहटें, जिस्म के चीथड़े
बन गए घर सभी के चिता याद है।
लाशें उड़ने लगीं थी धुएं संग में ,
छत उड़ी दूर कितनी कहाँ याद है ।
नन्हा बच्चा बचाने में ख़ुद चल बसा ,
ज़ख्मी मां और वो झुलसा पिता याद है ।
तीन तेरह हुए आंकड़े इस कदर
कौन कायम है और लापता याद है ।
ज़र के चक्कर क्योंकर नज़र फेर ली
सितमगर सबको चेहरा तेरा याद है ।
अब तो आंसू हैं यादें हैं और टीस है
ये ज़ख्म कैसे भरेंगे कहाँ याद है ।
वो जो बेघर हैं घायल हैं वंचित अभी
होगा इनका भला कैसे क्या याद है ।
न्याय योद्धा ‘ज़मीं ‘ भूख हड़ताल पे
घूमते खाके हम सब यहां याद है ।
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साभार
मुकेश पांडेय हरदा एमपी